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मंगलवार, 25 मई 2010

खबर जो खबर नहीं है

खबरों की भी अपनी दुनिया है। सबसे अलग। अनोखी दुनिया। सबको अपने मे समाने की जल्दी। उतनी ही जल्दी निकाल फेकने की भी। अक्सर सोचता हूँ। ऐसी क्यू हैं खबरों की दुनिया। आपस में लड़ती खबरे। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़। हर रोज यही खेल खेलती हैं खबरे। सुबह की ब्रेकिंग न्यूज़ दिन बीतते-बीतते निढाल हो जाती हैं। फिर भी कोई शोर नहीं। ना तो आगे निकलने की ख़ुशी। ना ही पीछे छूटने पर क्रंदन। हर हार के बाद नए सिरे से लड़ती हैं। आगे निकलने का जूनून लिए। पिटती-पिटाती कभी जीत जाती हैं। अक्सर हारती भी हैं। लेकिन, लब हमेशा खामोश रखती हैं। खबरे। अपना दर्द किसी से नहीं बतियाती हैं। अपने राज बेपर्दा नहीं करती। जितनी जगह मिल जाये उतने से ही खुश। साथी को ज्यादा जगह मिल जाने का नहीं कोई गम। जगह नहीं मिले तो भी कोई गल नहीं। चुपके से। फुसफुसा कर, केवल इतना कह जाती हैं। फिर लौटूंगी। इंतजार करना। भूलना मत। मैं लौटती रही हूँ। हमेशा से। नए रूप में। वैसे तुम भी तो यही करते हो। दूसरे से अलग दिखाने के फेर मैं। टिप-टिप कर के मेरा रंग रोगन करते हो। कहते हो मौलिक काम किया। लेकिन, मौलिक कुछ भी नहीं होता। मनु भी मौलिक नहीं थे। तो फिर मेरी और तुम्हारी बिसात किया। कुरुषेत्र से कलयुग तक। सतयुग से सौन्दर्य तक। कुछ भी नहीं हैं मौलिक। ना जाने। ऐसी कितनी। बाते कहती हैं। खबरे हर रोज। खामोश लब से। हम कुछ समझते हैं। या समझने की नौटंकी करते हैं। हम ही जाने। पर खबर को तामश नहीं आता। हमारी नादानी पर हंसती भी नहीं। अपने दर्शन का बखान भी नहीं करती। नहीं कहती है बुरबक। फिर कोशिश करती हैं। करती रहती है। बार-बार। कोशिश। समझने। समझाने की। हमारे हिसाब से बदलती हैं। अपने हिसाब से नहीं ढालती. हमारी ख़ुशी के लिए। शायद गीता को सबसे बढ़िया समझती हैं। खबरे। या फिर ख़बरों के दर्शन ने कृष्ण को मजबूर किया। कहने को " कर्म कर-फल की चिंता म़त कर"।