पसंद करें

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

यक्ष प्रश्न


जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।

सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।

प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

(ये पंक्तिया पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की हैं। मुझे नहीं पता राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान क्यों अक्सर उनकी याद आती थी...)

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

अथ श्री भारत कथा


(गुरुवार को राष्ट्रमंडल खेलों का समापन हो गया अब अगले कुछ दिनों तक हम भारत की बात करेंगे उस भारत की जो हमारी आत्मा है जानेंगे भारत और इंडिया के द्वन्द को आज बात उस भारत की जिसने इंडिया के आयोजन को शानदार बनाया और हमें कुछ दिनों के लिए स्याह दुनिया को भूलने के लिए मजबूर कर दिया...)
एक सप्ताह पहले तक आशीष कुमार का नाम उनके शहर इलाहाबाद में भी अंजाना था। आज पूरे भारत को उनपर गर्व है। आशीष से पहले हमने कभी सोचा भी नहीं था कि जिम्नास्टिक में कोई पदक मिलेगा। 19 साल के आशीष के कारनामे से पहेले हम मजबूर थे आंख फाड़ कर विदेशियों को देखने और उनके शारीर के लचक पर ताली बजाने के लिए। 16 साल कि दीपिका झारखण्ड के चितपुर गाँव से आती हैं। पिता ऑटो चलते हैं। राजनैतिक उठापटक और धोनी के लिए मशहूर इस राज्य की नई पहचान हैं दीपिका। अंतिम दौर में परफेक्ट टेन का स्कोर ऐसे ही नहीं बनता। असली भारत हमें कदम-कदम पर अचूकता सिखाती है। दीपिका ने जिंदगी से जो सीखा उसे मैदान पर उतारकर हमारे लिए खुशियाँ चुरा लाती हैं। इस खेल ने कई और हीरो दिए, उनमे राहुल बनर्जी भी एक हैं।
जिस देश में क्रिकेट धर्म हो और उसके खिलाडी भगवान। जहा सफलता इंडिया की बपौती मानी जाती है। जहां भारत का मतलब लाचारी और बेबसी से हों, वहां छोटे-छोटे गांव और कस्बों से निकले इन सितारों नेसाडी परिभाषा ही बदल दी है। जब लॉन टेनिस में भूपति, पेस और सानिया जैसे इंडियन हमें निराश कर देते हैं तो भारत का एक बेटा आता है "सोमदेव वर्मन"। आरके खन्ना स्टेडियम में सबके चेहरे पर गर्व लाता हैं और आँखों में ख़ुशी के आसूं। ये दूसरी बात है कि सोना साधने के बाद भी उसके चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान ही दीखता है। ये मासूमियत भारत हमें सिखाता है, इसे इंडिया में हम अक्सर मिस करते हैं। बोक्सिंग में अखिल और विजेंदर जब निराशा के अंधकार में हमें छोड़ जाते हैं तो मनोज, सुरंजोय, समोटा आते हैं। दस दिन पहले तक हम इनका नाम नहीं जानते थे, आज ये हमारे हीरो हैं। छोटे- छोटे गावों से आये हैं। बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर पेश करने वालों की ये फेहरिस्त लम्बी है। गीता, योगेश्वर, अलका, सरथ कमल, रमेश कुमार, कृष्ण पुनिया, रवि कुमार, विजय कुमार, नरसिंह यादव, ओमकार सिंह, रेनू बाला, अनीसा, अनीता, हिना... खेल से पहले अलग कारणों से सुर्खिया बटोरने वाली ज्वाला जब अश्वनी के साथ मैदान पर आती हैं तो हमें विपरीत हालत से लड़ना सिखाती हैं। बचपन से कदम-कदम पर भारत हमें यही तो सिखाता है।
जारी....

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

मगर शर्म इन्हें आती नहीं

आज राजनीति के मैदान से दो बड़ी ख़बरें आई हैं। कर्नाटक के नाटक पर फ़िलहाल विराम लग गया है। भाजपा की सरकार ने चार दिनों के भीतर दूसरी बार विश्वास म़त हासिल किया। दूसरी ओर, महराष्ट्र में कांग्रेस का खेल बेनकाब हुआ है। कैसे, सोनिया की रैलियों में भीड़ जुटाई जाती है वह कैमरे पर आ चुका है।
बात पहले कर्नाटक की। भाजपा को इतने वोट मिले हैं कि यदि निर्दलियों को वोट डालने का अधिकार कोर्ट दे भी दे तो सरकार बची रहेगी। अब इस पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया देखिए। पार्टी प्रवक्ता ने कहा कि ये सरकार बाहुबल और पैसे के ताक़त पर बचाई गई है। सरकारी तंत्र का दुरुपयोग किया गया है। यदि इस बात मे दम है भी तो कांग्रेस राज्य सरकार को गिराने के लिए इतनी बेचैन क्यूँ हैं, समझ में नहीं आ रहा? कल तक इसी पार्टी का कहना था कि भाजपा के पास बहुमत लायक विधायक ही नहीं हैं। जो चमत्कार पैसे और बाहुबल से पार्टी पिछले सात दिनों में नहीं कर पाई, उसे आखिर अंतिम चौबीस घंटे में कैसे कर दिया गया। वैसे भी बंगलुरू में बैठकर हंसराज भारद्वाज संविधान का भला करने के बदले कांग्रेस का ही तो एजेंडा चलाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। इतना ही नहीं इस नाटक के शुरू होने से पहले रेड्डी बंधुओं के पीछे लगी कांग्रेस अचानक ही उनको लेकर मौन हो गई। मैं रेड्डी बंधुओं का बचाव नहीं कर रहा। उन्हें सजा मिलनी चाहिए, कानून सम्मत। लेकिन, नफा-नुकसान का आकलन कर रेड्डी बंधुओं से कभी प्यार और कभी दुत्कार कांग्रेस का असली पोलीटिकल चेहरा दिखाता है। वैसे भी कर्नाटक में जैसा चल रहा है ऐसा ही चलता रहा तो भाजपा की कब्र ही खुदनी बाकी रह गई है. जल्दबाजी दिखा कर कांग्रेस और कुमारस्वामी उसे संजीवनी ही दे रहे हैं.
अब बात महाराष्ट्र की. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मंत्री ने वर्धा में सोनिया की होने वाली रैली को लेकर कुछ खुलासा किया है.किसी चैनेल ने स्टिंग ऑपरेशन नहीं किया। गलती से इनकी बाते कैमरे में कैद हो गई। दरअसल पार्टी का प्रेस कांफ्रेंस हो रहा था। दोनों नेताओं को पता नहीं था की कैमरा ऑन है। अब जरा इनकी बात सुनिए...अशोक चौहान(मुख्यमंत्री) ने दो हजार बसों के लिए दो करोड़ दे दिए हैं... इन बसों में लोगों को भरकर लाना है... आखिर गलती से ही सही यह सार्वजनिक हो ही गया कि मैडम सोनिया और और युवराज राहुल की रैलियों में भीड़ कैसे जुटती है। अब तो लगता है कि राहुल की यात्राओं के दौरान होने वाली नौटंकिया भी कही फिक्स ही तो नहीं होती।
वैसे भी अपने देश में कुछ भी हो सकता है। आखिर पता भी तो नहीं चलता कि नत्था मरेगा या बचेगा. लाल बहादुर मिलने के बावजूद। अब अपने कलमाडी साहब को ही देखिए। जनाब भी गलती से कांग्रेसी ही हैं। कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन समिति के अध्यक्ष भी हैं। आज इस खेल का समापन हो रहा है। समिति की तरफ से अख़बारों में एड दिया गया है। भगवान भरोसे सफल हुए आयोजन से लेकर खिलाडियों के स्वर्णिम प्रदर्शन तक का श्रेय समिति ने लूट लिया है। वैसे भी कलमाडी से नैतिक साहस की कभी भी उम्मीद नहीं रही है। भाई साहब खुद लाल बहादुर जो हैं! सिर्फ इसी बात की ख़ुशी है कि समिति ने सयाना से लेकर सुशील तक हर किसी को कोचिंग देने का श्रेय नहीं लिया। बच गए पुलेला गोपीचंद से लेकर सतपाल तक। एक और मजेदार बात कांग्रेसी प्रधानमंत्री हॉकी देखने पहुंचे और ऑस्ट्रेलिया ने भारत को धो डाला। हा हा हा...गनीमत है नेहवाल का मैच देखना मनमोहन भूल गए. फ़िलहाल रैंकिंग में नंबर दो रहने का जश्न मनाइए, हमारे राजनेता तो ऐसे ही हैं.

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

आनंद ही आनंद


बचपन से अबतक पता नहीं कितनी बार "आनंद" देखी है। मंगलवार की देर रात एक बार फिर इस फिल्म को देखा। पता नहीं क्यूँ तबसे ही राजेश खन्ना मुझे हर भारतीय खिलाडी में नजर आ रहे हैं। फर्क केवल इतना है कि फिल्म में आनंद सहगल कैंसर की बीमारी से लड़ रहा था और हमारे खिलाडी घटिया सिस्टम के कैंसर से लड़ रहे हैं। मौत से लड़ता आनंद सहगल फिल्म में हर किसी के चेहरे पर अपनी जिन्दादिली से मुस्कान लाता है और हमारे जांबाज मैदान से हमारे लिए मुस्कुराहट ला रहे हैं।
किसने सोचा होगा कलमाडी एंड कंपनी के कुकर्मो के बाद हमें ऐसी जीत नसीब होगी कि थोड़ी देर के लिए हम अपने गम भूल जाएंगे। ऐसा ही है अपना भारत। इसलिए तो हम महान हैं। जब लिएंडर और महेश निराश करते हैं, सान्या का साथ छूटने लगता है एक सोमदेव आता है बाल सुलभ मुस्कान के साथ। वैसी ही हंसी के साथ जैसी फिल्म में बार-बार कई बार आनंद के चेहरे पर दिखता है। झारखण्ड की दीपिका, संकटों की आंधी को चीर कर यहाँ पहुंची है। गगन नारंग, सुशील सब खुद के दम पर बने सितारे हैं। न किसी सरकार ने मदद दी न ही किसी सिस्टम ने इनकी भलाई की। लेकिन, ये मजबूरियों का रोना नहीं रोते। उपलब्ध संसाधनों से इतिहास रचते हैं। फिर भी विनम्र। किसी से कोई शिकायत भी नहीं करते। केवल ख़ामोशी से अपनी नई पीढ़ी तैयार कर रहे हैं। शूटिंग और कुश्ती मे मिले मेडल इसके गवाह हैं। सुशील के गुरु को देखिए। गिल ने अपमान किया, लेकिन अपना गम किसी को नहीं बताते। केवल कुश्ती की सफलता और उसके भविष्य की बात करते हैं। पुलेला गोपीचंद ख़ामोशी से आते हैं और सायना नेहवाल को मंत्र दे कर फिर कोने में दुबक जाते हैं। ना अपनी महानता का गुणगान करते हैं और ना ही इस देश के भ्रष्ट सिस्टम पड़ सवाल खड़ा करते हैं। कृष्णा आती हैं और इतिहास रचकर चली जाती हैं। ओनर किलिंग के लिए कुख्यात हरियाणा की लड़कियां सोने पर सोने बरसा रही हैं। सब चुपके से अपना-अपना काम करती हैं। आम आदमी की खुशी के लिए अपना दर्द छुपा जाती हैं।
सुरेश कलमाडी, शीला ... जब इन्हें मेडल देते हैं डॉक्टर बनर्जी की तरह हंसते हैं। फिल्म मे डॉक्टर बनर्जी को पता था कि आनंद सहगल चंद दिनों का मेहमान है। शायद, यही कारण है की उनकी हंसी में आनंद का दर्द दिखता था। यहाँ कलमाडी, शीला ... यह सोच कर परेशान हैं, ये ऐसा कैसे कर रहे हैं। इनकी हंसी में यही दिखता है। लेकिन, इन्हें शर्म आती नहीं। ये कुछ इनाम की घोषणा कर ही बम-बम हैं। फिल्म में आनंद मुरारीलाल कि तलाश में कई दोस्त बना लेते हैं, यहाँ हमारा सिस्टम बेडा गर्क करने के फेर मे हमें कई सितारे देकर चला जाता है। बाबू मोशाय, आनंद कभी मरता नहीं है... ठीक वैसे ही जीत का जूनून कभी दम तोड़ता नहीं। जैसे मौत एक कविता है, जीत भी एक कविता है...हमसे हमारे खिलाडियों का वादा है हर कदम पर करेंगे कलमाडी और शीला जैसों को शर्मिंदा। लाएंगे हमारे लिए आनंद ही आनंद। केवल आनंद...सुन रहे हैं न बाबू मोशाय.

बुधवार, 2 जून 2010

सैर सपाटा

कलकत्ते से दमदम आए
बाबू जी के हमदम आए
हम वर्षा में झमझम आए
बर्फी, पेड़े, चमचम लाए।
खाते पीते पहुँचे पटना
पूछो मत पटना की घटना
पथ पर गुब्बारे का फटना
तांगे से बेलाग उलटना।
पटना से हम पहुँचे रांची
रांची में मन मीरा नाची
सबने अपनी किस्मत जांची
देश देश की पोथी बांची।
रांची से आए हम टाटा
सौ सौ मन का लो काटा
मिला नहीं जब चावल आटा
भूल गए हम सैर सपाटा !
( बचपन में यह कविता जोर-जोर से पढता था। मानसून की खबरों को देखकर इस कविता की याद आ गयी. आरसी प्रसाद सिंह की इस कविता का आप भी मजा उठाये। )

मंगलवार, 25 मई 2010

खबर जो खबर नहीं है

खबरों की भी अपनी दुनिया है। सबसे अलग। अनोखी दुनिया। सबको अपने मे समाने की जल्दी। उतनी ही जल्दी निकाल फेकने की भी। अक्सर सोचता हूँ। ऐसी क्यू हैं खबरों की दुनिया। आपस में लड़ती खबरे। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़। हर रोज यही खेल खेलती हैं खबरे। सुबह की ब्रेकिंग न्यूज़ दिन बीतते-बीतते निढाल हो जाती हैं। फिर भी कोई शोर नहीं। ना तो आगे निकलने की ख़ुशी। ना ही पीछे छूटने पर क्रंदन। हर हार के बाद नए सिरे से लड़ती हैं। आगे निकलने का जूनून लिए। पिटती-पिटाती कभी जीत जाती हैं। अक्सर हारती भी हैं। लेकिन, लब हमेशा खामोश रखती हैं। खबरे। अपना दर्द किसी से नहीं बतियाती हैं। अपने राज बेपर्दा नहीं करती। जितनी जगह मिल जाये उतने से ही खुश। साथी को ज्यादा जगह मिल जाने का नहीं कोई गम। जगह नहीं मिले तो भी कोई गल नहीं। चुपके से। फुसफुसा कर, केवल इतना कह जाती हैं। फिर लौटूंगी। इंतजार करना। भूलना मत। मैं लौटती रही हूँ। हमेशा से। नए रूप में। वैसे तुम भी तो यही करते हो। दूसरे से अलग दिखाने के फेर मैं। टिप-टिप कर के मेरा रंग रोगन करते हो। कहते हो मौलिक काम किया। लेकिन, मौलिक कुछ भी नहीं होता। मनु भी मौलिक नहीं थे। तो फिर मेरी और तुम्हारी बिसात किया। कुरुषेत्र से कलयुग तक। सतयुग से सौन्दर्य तक। कुछ भी नहीं हैं मौलिक। ना जाने। ऐसी कितनी। बाते कहती हैं। खबरे हर रोज। खामोश लब से। हम कुछ समझते हैं। या समझने की नौटंकी करते हैं। हम ही जाने। पर खबर को तामश नहीं आता। हमारी नादानी पर हंसती भी नहीं। अपने दर्शन का बखान भी नहीं करती। नहीं कहती है बुरबक। फिर कोशिश करती हैं। करती रहती है। बार-बार। कोशिश। समझने। समझाने की। हमारे हिसाब से बदलती हैं। अपने हिसाब से नहीं ढालती. हमारी ख़ुशी के लिए। शायद गीता को सबसे बढ़िया समझती हैं। खबरे। या फिर ख़बरों के दर्शन ने कृष्ण को मजबूर किया। कहने को " कर्म कर-फल की चिंता म़त कर"।