पसंद करें

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

आनंद ही आनंद


बचपन से अबतक पता नहीं कितनी बार "आनंद" देखी है। मंगलवार की देर रात एक बार फिर इस फिल्म को देखा। पता नहीं क्यूँ तबसे ही राजेश खन्ना मुझे हर भारतीय खिलाडी में नजर आ रहे हैं। फर्क केवल इतना है कि फिल्म में आनंद सहगल कैंसर की बीमारी से लड़ रहा था और हमारे खिलाडी घटिया सिस्टम के कैंसर से लड़ रहे हैं। मौत से लड़ता आनंद सहगल फिल्म में हर किसी के चेहरे पर अपनी जिन्दादिली से मुस्कान लाता है और हमारे जांबाज मैदान से हमारे लिए मुस्कुराहट ला रहे हैं।
किसने सोचा होगा कलमाडी एंड कंपनी के कुकर्मो के बाद हमें ऐसी जीत नसीब होगी कि थोड़ी देर के लिए हम अपने गम भूल जाएंगे। ऐसा ही है अपना भारत। इसलिए तो हम महान हैं। जब लिएंडर और महेश निराश करते हैं, सान्या का साथ छूटने लगता है एक सोमदेव आता है बाल सुलभ मुस्कान के साथ। वैसी ही हंसी के साथ जैसी फिल्म में बार-बार कई बार आनंद के चेहरे पर दिखता है। झारखण्ड की दीपिका, संकटों की आंधी को चीर कर यहाँ पहुंची है। गगन नारंग, सुशील सब खुद के दम पर बने सितारे हैं। न किसी सरकार ने मदद दी न ही किसी सिस्टम ने इनकी भलाई की। लेकिन, ये मजबूरियों का रोना नहीं रोते। उपलब्ध संसाधनों से इतिहास रचते हैं। फिर भी विनम्र। किसी से कोई शिकायत भी नहीं करते। केवल ख़ामोशी से अपनी नई पीढ़ी तैयार कर रहे हैं। शूटिंग और कुश्ती मे मिले मेडल इसके गवाह हैं। सुशील के गुरु को देखिए। गिल ने अपमान किया, लेकिन अपना गम किसी को नहीं बताते। केवल कुश्ती की सफलता और उसके भविष्य की बात करते हैं। पुलेला गोपीचंद ख़ामोशी से आते हैं और सायना नेहवाल को मंत्र दे कर फिर कोने में दुबक जाते हैं। ना अपनी महानता का गुणगान करते हैं और ना ही इस देश के भ्रष्ट सिस्टम पड़ सवाल खड़ा करते हैं। कृष्णा आती हैं और इतिहास रचकर चली जाती हैं। ओनर किलिंग के लिए कुख्यात हरियाणा की लड़कियां सोने पर सोने बरसा रही हैं। सब चुपके से अपना-अपना काम करती हैं। आम आदमी की खुशी के लिए अपना दर्द छुपा जाती हैं।
सुरेश कलमाडी, शीला ... जब इन्हें मेडल देते हैं डॉक्टर बनर्जी की तरह हंसते हैं। फिल्म मे डॉक्टर बनर्जी को पता था कि आनंद सहगल चंद दिनों का मेहमान है। शायद, यही कारण है की उनकी हंसी में आनंद का दर्द दिखता था। यहाँ कलमाडी, शीला ... यह सोच कर परेशान हैं, ये ऐसा कैसे कर रहे हैं। इनकी हंसी में यही दिखता है। लेकिन, इन्हें शर्म आती नहीं। ये कुछ इनाम की घोषणा कर ही बम-बम हैं। फिल्म में आनंद मुरारीलाल कि तलाश में कई दोस्त बना लेते हैं, यहाँ हमारा सिस्टम बेडा गर्क करने के फेर मे हमें कई सितारे देकर चला जाता है। बाबू मोशाय, आनंद कभी मरता नहीं है... ठीक वैसे ही जीत का जूनून कभी दम तोड़ता नहीं। जैसे मौत एक कविता है, जीत भी एक कविता है...हमसे हमारे खिलाडियों का वादा है हर कदम पर करेंगे कलमाडी और शीला जैसों को शर्मिंदा। लाएंगे हमारे लिए आनंद ही आनंद। केवल आनंद...सुन रहे हैं न बाबू मोशाय.

2 टिप्‍पणियां:

  1. लेख विश्लेषणात्मक तरीके से शुरू किया गया है, लेकिन अंत तक यह थोड़ा सामान्य किस्म का हो गया है....गहराई में विश्लेषण की जरूरत है। टीस अंदर तक पैबस्त होनी चाहिए.....

    जवाब देंहटाएं